Thursday, October 29, 2009

आपकी नज़रों में क्या है इंदिरा गांधी की छवि...

http://newsforums.bbc.co.uk/ws/hi/thread.jspa?forumID=10242

इंदिरा गांधी के बारे में विश्लेषण देना हो तो मेरे दिमाग में एक ही विचार आता है - संभावनाएं जो गवां दी गयी ( अपोरच्युनिटीस लोस्ट )


जब इंदिरा गांधी को मारा गया तब मैं बहुत छोटा था इसलिए उनके या उनके कार्यकाल बारे में प्रथम द्रश्तया तो कुछ नहीं कह सकता लेकिन आज की परिस्थिति से भूत का कुछ अंदाजा अवश्य लगा सकता हूँ | अगर हम पीछे मुड कर देखें और यह पता करने का प्रयास करें कि विकास के मार्ग पर हम जहाँ खड़े हैं वहां पहुँचने में हमें इतनी देर क्यों लगी और बाकी देश हमसे आगे क्यों निकल गएँ तो हम पायेंगे कि सही मार्ग चुनने में हमने सबसे ज्यादा भूलें ६० , ७० और ८० के दशकों में की | अगर किसी को मेरी बात पर विशवास नहीं है तो वह youtube पर इस विडियो को देखे ( http://www.youtube.com/watch?v=hVimVzgtD6w ) , इसमें पिछले सौ सालों में विभिन्न देशों में हुए विकास को बहुत ही सुन्दरता से दर्शाया गया है | इसमें साफ़ बताया है कि किस तरह चीन, कोरिया और अन्य एशियाई देशों ने ७० और ८० के दशकों में गियर बदला और विकास की तेज राह पकड़ी और हमें पीछे छोड़ दिया और उसके बाद तो हम बस पिछड़ते ही चले गए |

यह बात सही है कि इंदिरा गांधी ने कुछ कठोर निर्णय लिए जो उनकी नेतृत्व क्षमता को दर्शाते हैं और आज के नपुंसक नेताओं के सामने तो उनका यह एक गुण भी उन्हें काफी बड़ा बना देता है, लेकिन देश के विकास को ध्यान में रखकर जिस दूरदर्शिता का परिचय उन्हें देना था वह उन्होंने कभी नहीं दिया |

जनसंख्याँ और शिक्षा की अनदेखी : १९५९ में क्यूबा की क्रांति के बाद क्रांतिकारियों ने अपने सर्वप्रथम निर्णयों में शिक्षा से जुड़े एक निर्णय को भी सम्मिलित किया | वो निर्णय था शिक्षा को सार्वभौमिक बनाना | उन्होंने इसे केवल निर्णय तक ही सीमित नहीं रखा परन्तु उसे सच बनाने के लिए कदम भी उठाये और कुछ ही वर्षों में क्यूबा में जन जन को शैक्षिक बना दिया गया | भारत में ऐसा क्यों नहीं हुआ | यहाँ तक कि नेहरुकाल के बाद पहला भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT ) १९९४ में बना | यह बात और है कि तब तक भारत की जनसँख्या तीन गुना हो चुकी थी | जनसंख्याँ के नियंत्रण के लिए उस समय उचित कदम उठाये जाते तो आज समस्या उतनी गंभीर नहीं होती | क्या यह सब जानबुझ कर किया गया क्योंकि अनपढ़ और बेबस जनता को हाथ के पंजे पर मोहर लगाने के लिए पटाना आसन था |

परिवारवाद और चाटुकारिता की राजनीति : राजनीति में परिवारवाद का जो बीज नेहरु ने बोया था उसे इंदिरा गांधी ने बड़े परिश्रम से सींचा और आज वह बीज बड़ा पेड़ बन कर क्या फल दे रहा है यह किसी से छुपा नहीं है | भारत में राजशाही फिर से लाने का सबसे अधिक श्रेय अगर किसी को जाता है तो शायद इंदिरा गाँधी ही है | इंदिरा गांधी ने वफादारों की फौज तो बनायी लेकिन उन वफादारों की वफादारी देश के प्रति कितनी थी और कितनी अपनी उन्नति के प्रति यह सोचने का विषय है | अर्जुन सिंह , प्रणव मुख़र्जी , बलराम जाखड, शिवराज पाटिल , नारायण दत्त तिवारी, सलमान खुर्शीद , ए के एंटोनी , वीरप्पा मोईली , माधव राव सिंधिया , राजेश पायलेट , दिग्विजय सिंह , मुरली देवड़ा ऐसे कई नाम है जो पिछले ४० सालों में सत्ता से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं लेकिन जब भी हरित क्रांति, दुग्ध क्रांति, संचार क्रांति, परिवहन क्रांति (जो आई नहीं) , शिक्षा क्रांति (जिसके बारे में सोचा भी नहीं गया) , आर्थिक सुधारों की बात होती है तो इनमें से किसी का भी नाम नहीं लिया जाता | ऐसा क्यों ? और इसी से पता लगता है कि इनमें से कितने अपनी योग्यता से आगे बढे और कितने किसी और कारण से |

बेलगाम नौकरशाही और भ्रष्टाचार : इंदिरा गांधी को जब मारा गया तब में बहुत छोटा था जब थोडा बड़ा हुआ तो अपने नानाजी से राजनीति पर भी चर्चा करने लगा | वे मुझे बताते थे कि किस तरह इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भ्रष्टाचार बढा और उनके सेवा निवृत होने तक एक इमानदार व्यक्ति के लिए सरकारी नौकरी करना दूभर हो गया था | पिछली पीढी के मेरे अधिकतर संबन्धी सरकारी नौकरी में है या थे और उनमे से ज्यादातर इंदिरा गांधी के कार्यकाल के समय नौकरी पर लगे थे | जबकी मेरे ज्यादातर साथी और भाई बन्धु (मुझे मिलाकर) निजी कंपनियों के लिए काम करते हैं | इसका यह अर्थ है कि नौकरशाही का जितना विस्तार इंदिरा गांधी के समय में हुआ उतना किसी और के समय में नहीं हुआ और ना शायद अब होगा | यह कहने के आवश्यकता नहीं कि जितनी कार्यकुशलता और इमानदारी नौकरशाही में होनी चाहिए उतनी है नहीं | अगर नौकरशाही के विस्तार के समय उनमे उचित मूल्यों के निर्माण और कार्यकुशलता बढाने पर ध्यान दिया जाता तो उससे देश के विकास पर क्या प्रभाव पढता उसकी अब केवल कल्पना ही की जा सकती है |

इसलिए आज की पीढी के लिए इंदिरा गांधी वो संभावनाएं हैं जो गवां दी गयी |

Sunday, October 4, 2009

कुछ मेरी कुछ आपकी बात

http://www.bbc.co.uk/blogs/hindi/2009/10/post-34.html

सर्वप्रथम आपको बीबीसी हिंदी के प्रमुख का पदभार ग्रहण करने पर बधाई | मैं आपके इस कथन से पूरी तरह सहमत हूँ कि पत्रकारिका का लक्ष्य लोगों की समस्याओं को उजागर करना है | परन्तु मेरे विचार में उसे वहां पर रुककर अपने कार्य को सम्पन्न नहीं समझना चाहिए वरन समस्याओं का हल निकालने में भी सहायता करनी चाहिए | इसके लिए अगर पत्रकारों को राजनेताओं और अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों से कठिन प्रश्न भी पूछना पड़े तो उससे उन्हें झिझकना नहीं चाहिए | लेकिन यह सब तभी संभव है जब आपको बीबीसी हिंदी की मातृ संस्थान बीबीसी वर्ल्ड सर्विस से भी यही मेंडेट (आज्ञा - पत्र) मिला हो | इसलिए मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि आपको अपने बॉस से क्या मेंडेट मिला है ? क्योंकि आखिर में जो बीबीसी हिंदी चला रहा है उसका हित आपके लिए सर्वोपरि हो जाता है |

फिर भी आपने पूछा है तो मैं कहता हूँ कि मैं कैसी खबरें पढ़ना/सुनना पसंद करूँगा | बीबीसी हिंदी के रूप में आपके पास ऐसा मंच है जिसमें आप व्यवसायिक हितों से बाधित नहीं है | इसलिए मैं चाहूँगा की आप इस स्वतंत्रता का भरपूर फायदा उठायें और ऐसी खबरें को महत्व दें जिनका व्यवयसायिक मूल्य भले कम हो लेकिन जो देश की मूलभूत समस्याओं को उजागर करती हैं और जिनमें थोड़े से सुधार के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं | मिसाल के तौर पर बीबीसी हिंदी ने थोड़े दिनों पहले 'आओ स्कूल चले' के नाम से बहुत अच्छी श्रंखला प्रस्तुत की थी जिसमें कुछ सरकारी स्कूलों की दुर्दशा को बखूबी उजागर किया गया था | भारत का मेनस्ट्रीम (मुख्यधारा) मीडिया ऐसी खबरें कभी नहीं छापेगा | उसे तो शाहरुख़ खान , राखी सावंत और सचिन तेंदुलकर के पीछे भागने से फुर्सत कहाँ है | इसी तरह शिक्षा, पर्यावरण, स्वछता, परिवहन से जुडी समस्याएँ , भ्रष्ट्राचार, सरकारी संसाधनों की बर्बादी से जुडी ख़बरों को अधिक महत्व दें | और जब नेताओं को अपने मंच पर लायें तो उनसे इन समस्याओं के बारें में कठिन सवाल पूछें | उनसे साफ़ साफ़ पूछें कि वे इन समस्याओं के समाधान के लिए क्या कर रहें है | संजीव श्रीवास्तव नेताओं को अपने मंच पर लातें तो हैं लेकिन उनसे बहुत ही आसान सवाल पूछ कर छोड़ देते हैं :) | व्यावसायिक मीडिया ऐसा करे तो समझ में आता हैं क्योंकि वे पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं करना चाहते पर आपको तो वो डर भी नहीं है | मुझे बहुत खुशी होगी अगर आप कपिल सिब्बल को अपने मंच पर बुलाएं और उन्हें 'आओ स्कूल चलें' की वो टेप्स सुनाएँ और उनसे पूछें कि वे बिहार और मध्य प्रदेश के उन सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने के लिए क्या कर रहें है | और मैं चाहूँगा कि आप इन समस्याओं पर काम कर रही गैर सरकारी संस्थाओं को और उनके अच्छे कार्यों को समय समय पर अपनी ख़बरों में जगह दें | इससे लोग उनके बारें में जानेगे और हो सकता है उनकी मदद में आगे भी आयें | लेकिन इससे भी ज्यादा जरुरी यह हैं कि आने वाली पीढ़ी शाहरुख़ खान, ऐश्वर्या राय के साथ साथ प्रकाश आमटे, दीप जोशी, डॉक्टर चन्द्रा, संदीप पांडे को भी आपना आदर्श बनाये | मैं नहीं जानता कि यह सब करने से बीबीसी वर्ल्ड सर्विस और उसके मालिकों को क्या लाभ होगा लेकिन इतना कहूँगा कि अच्छे कर्मों का फल एक दिन अवश्य मिलता है |

मेरी यही कामना है कि इश्वर आपको आपके नए काम में भरपूर सफलता प्रदान करे और आपको बीबीसी हिंदी के माध्यम से उस परिवर्तन का अग्रदूत बनाये जिसकी इस देश को सख्त आवश्यकता है |

Friday, October 2, 2009

चीनी वीजा़ पर विवाद

http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2009/10/091001_visa_china_kas_skj.shtml

इसमें तो कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि चीन ने ऐसा क्यों किया है | चीन हमेशा से भारत को खतरे के रूप में देखता रहा है और इसलिए भारत को कमजोर करने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है | पाकिस्तान को दी जाने वाली आर्थिक, सैन्य एवं राजनयिक सहायता इस नीति का अहम् हिस्सा है | यह नया खेल राजनयिक सहायता का हिस्सा है |

यह बातें तो शायद सभी जानते हैं तो फिर मुझे लेख लिखने की क्या आवश्यकता है | पर इस विषय पर दो बातें लिखना चाहता हूँ | पहली बात : हमारी सरकार की प्रतिक्रिया पढ़कर हंसी आती है | बीबीसी हिंदी के लेख से "भारतीय विदेश मंत्रालय ने भी इस पर बयान जारी किया है. उनका कहना है कि भारतीय नागरिकों के ख़िलाफ़ मूल निवास और नस्ल के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए और हमने अपनी चिंताओं से चीनी सरकार को आगाह कर दिया है." | अब आप ही बताईये जो व्यक्ति आपको नुकसान पहुंचाने के लिए हर साल अरबों डॉलर खर्च करता हो , हर दिन नए नए तरीके ढूंढ़ता हो उसको अपनी "चिंता से आगाह" करने से कोई फायदा है | भारत को भी शिनजियांग , होंग कोंग , गुआंग दोंग , फुजिआन के रहने वालों को अलग कागज़ पर वीसा जारी करने पर विचार करना चाहिए | कम से कम चीन को इस विषय पर धमकी दे कर यह अहसास दिलाने का प्रयास तो करना ही चाहिए कि अगर उनके साथ भी यही खेल खेला जाए तो उनको कैसा लगेगा | लेकिन हमारी राजशाही को देश की इतना चिंता होती तो देश में बहुत सी बातें अलग होती | पता नहीं यह दौर मुझे उस दौर जैसा क्यों लगता है जब ब्रिटिश धीरे धीरे एक एक प्रान्त/रियासत पर कब्जा करते चले गए और भोग विलास में डूबी उस समय की राजशाही को पता भी न लगा |

दूसरी बात : "लेकिन हर कश्मीरी एजाज़ की तरह किस्मत वाला नहीं है |" बीबीसी के प्रत्रकार द्वारा लिखा हुआ यह वाक्य परेशान करने वाला है | क्या बीबीसी के पत्रकार को इतनी भी समझ नहीं कि यह चीन का अपने स्वार्थसिद्धि के लिए एक खेल है और इस खेल में कश्मीर के लोगों का केवल इस्तेमाल किया जा रहा है | यह सही है कि कुछ कश्मीरियों को चीन के इस खेल से परेशानी का सामना करना पड़ रहा है लेकिन क्या उन्हें पता नहीं कि इसका विरोध नहीं किया गया तो भारत के लिए कितने गंभीर परिणाम हो सकते हैं | क्या उन्हें भारत से इतना भी लगाव नहीं कि वह कुछ लोगों की निजी परेशानियों से सहानुभूति जताने के साथ साथ भारत के हो रहे अहित को देखें और उसके बारें में भी लिखे , कम से कम उन यात्रियों को रोक कर भारत द्वारा किये जा रहे मामूली विरोध को गलत तो न बताएं | अगर भारत से उन्हें कोई लगाव नहीं तो क्यों वे भारतीयों की भाषा में लिख रहें हैं ? क्या बीबीसी हिंदी भी ब्रिटिश सरकार के किसी छुपे हुए राजनयिक एजेंडा का हिस्सा है जिसमें उसका लक्ष्य भारतीयों के मतभेदों को उभार कर उनमें फूट डालना है ? क्या बीबीसी हिंदी ब्रिटिश सरकार की 'फूट डालो और राज करो' की नीति का नया स्वरुप है ? क्या बीबीसी के पत्रकार जलियांवाला वाला बाग़ में गोली चलाने वाले उन भारतीय सिपाहियों के सामान है जिन्होंने एक अंग्रेज के कहने पर अपने ही लोगों पर गोलियाँ चलायीं ? मुझे यही आशा है (और इश्वर से प्रार्थना है ) कि यह सब बातें गलत निकले | लेकिन अगर सही निकलती है तो मुझे आश्चर्य भी न होगा |

Friday, September 18, 2009

शशि थरूर और ...........




हा हा हा ..... | इन ख़बरों को पढ़ कर मुझे हंसी क्यों आ रही है ? इसलिए कि कोई उन बातों पर ध्यान नहीं दे रहा है जो इन ख़बरों से उभर कर आती हैं और जो हमारे गणमान्य पत्रकार लिख नहीं रहे या लिखना नहीं चाहते |

पहली बात : जो व्यक्ति अपने पैसों से तीन महीने तक पाँच सितारा होटल में रह सकता है वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं है | वह उन ०.०१ % भारतियों में से है जिनके जन्मे अथवा अजन्मे पोतें-पोतियों को भरण-पोषण के लिए कभी काम करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी | जाहिर है कि वे विमान के पहले दर्जे से ही यात्रा करने के आदी है | उनके लिए विमान का साधारण दर्जा 'मवेशी क्लास' ही है | अगर उनके मुंह से गलती से यह सच निकल ही गया तो उसके लिए इतना बवाल मचाने की क्या आवश्यकता है | इससे एक बार फिर यह सिद्ध होता है जो मैं अपने दूसरे लेखों में भी लिख चुका हूँ कि भारत की राजशाही और आम जनता में इतना बड़ा अंतर आ गया है कि राजशाही की सोच भी जनता तक नहीं पहुँच पा रही है | और यहीं से मेरी दूसरी बात चालू होती है |

दूसरी बात : भारत की राजशाही को यह भी नहीं पता कि असली 'मवेशी क्लास' क्या होती है | उन्होंने कभी उज्जैन से इंदौर का सफ़र बस से तय नहीं किया है क्योंकि अगर किया होता तो उन्हें विमान का साधारण दर्जा जहाँ आराम से बैठने को गद्देदार सीट होती है, वातानुकूलन होता है, सुन्दर परिचायिकाएं द्वारा भोजन दिया जाता है , सपने में भी 'मवेशी क्लास' नहीं लगता | अगर कोई यह जानना चाहता है कि असली मवेशी क्लास क्या होती है तो वह उज्जैन से इंदौर की यात्रा बस से जरुर करे | तब उन्हें पता लगेगा कि किस तरह बसों में लोगों को [ मवेशियों की तरह ] ठूंस ठूंस कर तब तक भरा जाता है जब तक कि चढ़ने वाली पहली पायदान पर एक व्यक्ति लटकने न लगे और चालक के बगल से लेकर गियर बॉक्स के ऊपर तक एक एक इंच की जगह भर ना जाये | और अगर कोई भी इस व्यवस्था का विरोध करने का प्रयास करता है तो उन्हें मवेशियों की ही तरह हड़का कर चुप करा दिया जाता है | मुझे पूरा विश्वास है कि यही हाल भारत के दूसरे साधारण शहरों के परिवहन साधनों का भी है | गाँवों और कस्बों के परिवहन साधनों के बारे में तो चर्चा करना ही बेकार है | लेकिन यहाँ किसे फुर्सत है कि असली 'मवेशी क्लास' के बारे में लिखे, चर्चा करें या सुधारने का प्रयास करे | अगर गांधी परिवार के सदस्य इस असली 'मवेशी क्लास' में यात्रा कर के दिखाएँ तो मैं उन्हें मानूं | और यहीं से मेरी तीसरी बात चालू होती है |

तीसरी बात : समस्याओं से भागना और अपनी कमजोरियों से बचना, यहाँ तक कि उनके बारें में चर्चा भी न करना हमारे राष्ट्रीय चरित्र का अभिन्न अंग है | यह कब से है यह तो कह नहीं सकता परन्तु इतने ख़राब हालात एक दिन में तो नहीं बनते उनके लिए वर्षों या दशकों लगते हैं | आम जनता और राजशाही दोनों ही शशि थरूर से इसलिए नाराज़ है क्योंकि उन्होंने मजाक मजाक में उस शब्द का प्रयोग कर दिया जो उन्हें याद दिलाता है कि भारत की आम जनता की सही स्थिति क्या है | दोनों ही जल्दी से जल्दी थरूर से क्षमा मंगवा कर या इस्तीफा दिलवा कर मामले को ख़त्म कर फिर से अपने अपने मोहपाश में खो जाना चाहते हैं |

Monday, August 24, 2009

जिन्ना, जसवंत और पाकिस्तान...


हनीफजी के दूसरे ही वाक्य में पाकिस्तान की वर्तमान परिस्थिति की पूरी कहानी छिपी हुई है | दूसरों की गलतियां पढ़ने या समझने से कोई आगे नहीं बढ़ सकता उसके लिए उसे स्वंय की गलतियां को समझना और उन पर परिश्रम करना ज्यादा जरुरी है | जिस राष्ट्र की बुनियाद केवल नफरत की भावना पर रखी गयी हो वह राष्ट्र कभी प्रगति नहीं कर सकता क्योंकि उसकी सारी उर्जा उस नफरत को पोषण करने में चली जाती है और वह अपनी प्रगति के मार्ग पर चलने की उर्जा नहीं जुटा पाता | मुझे लगता है कि पाकिस्तान के साथ कुछ यही हुआ है | और यहीं मुझे लगता है गांधीजी का भारत को बहुत बड़ा योगदान रहा है | उन्होंने हमें हिंसा और नफरत जैसे नकारात्मक विचारों से बचाए रखने का पूरा प्रयास किया | मेरा तो यही मानना है कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति इस बात का प्रतिबिम्ब है कि उसकी सोच कितनी सकारात्मक है | और यह बात शायद किसी व्यक्ति पर भी उतनी ही लागू होती है | आज अमेरिका और जापान अगर दुनिया के अग्रणी राष्ट्र है तो वह इसलिए है क्योंकि उनके नागरिकों की सोच हमसे कहीं ज्यादा बेहतर है | उसी तरह अगर आप मानते है कि कई मामलो में भारत पाकिस्तान से आगे है तो यह उसकी बेहतर सोच का ही परिणाम है |

Thursday, August 20, 2009

एक तीर कई निशाने


इस लेख में संजीवजी ने यह विश्लेषण किया है कि भाजपा ने जसवंत सिंह को क्यों निकला | परन्तु मैं यह सोच रहा हूँ कि जसवंत सिंह ने आखिर वह किताब लिखी ही क्यों | इसको लेकर मेरी दो धारणाएं हैं | पहली : जसवंत सिंह अपनी नई पार्टी बनाना चाहते हैं | उन्हें भाजपा में अपना कोई भविष्य दिख नहीं रहा था या शायद उन्हें भाजपा का ही कोई भविष्य नहीं दिख रहा | ऐसे में एक विवादस्पद किताब या लेख लिख कर ही वे इतना प्रचार पा सकते हैं कि अपना एक स्वतंत्र राजनितिक अस्तित्व खड़ा कर सके | लेकिन जिन्ना पर ही किताब क्यों | जिन्ना की प्रशंसा करके और बटवारे का उत्तरदायित्व नेहरूजी पर डालकर शायद वे कांग्रेस और भाजपा दोनों से अपने आप को अलग बताना चाहते हों | राजस्थान में लोग भाजपा और कांग्रेस दोनों को आजमा चुके हैं और दोनों से ही लोगों को गहरी निराशा हाथ लगी है | शायद जसवंत सिंह राजस्थान में एक तीसरे विकल्प के रूप में उभारना चाहते हो | जो व्यक्ति विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री जैसे पदों पर रह चुका हो वो भी ऐसे समय जब कारगिल युद्ध और विमान अपहरण जैसी घटनाएँ हुई हो उसके पास लिखने के लिए सामग्री की तो कोई कमी नहीं होनी चाहिए | पर उन सब विषयों पर तो राजनीति से सन्यास लेने पर ही किताबें लिखी जाएँगी | अभी तो कोई ऐसी किताब चाहिए जो उन्हें राजस्थान की राजनीति में स्थापित कर सके | दूसरी धारणा यह है कि वे पाकिस्तान का कोई पुरस्कार पाने के जुगाड़ में हैं वर्ना कोई ६२ साल पुराने गडे मुर्दे क्यों उखाडेगा | यह सर्वविदित है वह जिन्ना ही थे जिनकी अध्यक्षता में मुस्लिम लीग ने १९४० में अलग राष्ट्र पाकिस्तान की मांग रखी थी और जिन्ना के आव्हान पर ही १९४६ में धार्मिक दंगे शुरू हुए थे | ऐसे में कोई कैसे जिन्ना को बटवारे के लिए दोषी ठहराने को गलत बता सकता है | ऐसा हो सकता है कि बटवारे पर अंतिम मुहर नेहरूजी और कांग्रेस ने लगाई हो लेकिन इससे जिन्ना और मुस्लिम लीग की जिम्मेदारी कम नहीं हो जाती | यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि मेरी इन धारणाओं में से कौन सी सही साबित होती है | अगर कुछ दिनों में जसवंत सिंह एक नयी पार्टी की घोषणा करे या पाकिस्तान सितारा-ए-इम्तियाज़ से उन्हें पुरस्कृत करे तो मुझे याद किजीयेगा |

Sunday, August 16, 2009

जो सेलिब्रिटी नहीं हैं उनका क्या...

शाहरुख़ को नेवार्क हवाई अड्डे पर दो घंटे रोके जाने पर बीबीसी हिंदी ने पाठको की राय मांगी है कि "क्या शाहरुख़ को रोका जाना उचित था" |

http://www.bbc.co.uk/hindi/news/2009/08/090816_shahrukh_new_pp.shtml

http://newsforums.bbc.co.uk/ws/hi/thread.jspa?forumID=9612

मेरे विचार में उसका शीषर्क होना था "जो सेलिब्रिटी नहीं है उनका क्या ....." (जो कि राजेश प्रियदर्शी के एक ब्लॉग का शीर्षक था ,
http://www.bbc.co.uk/blogs/hindi/2009/08/post-17.html#commentsanchor , उसमे "रितेश" नाम से मेरी टिपण्णी भी छपी है )

भारत में दो तरह लोग रहते हैं , राजशाही और आम जनता | शाहरुख़ वर्षो पहले राजशाही के सदस्य बन चुके हैं और आम जनता की तरह पंक्ति में खड़े रह कर अपनी बारी का इंतजार करना भूल गए हैं | मैं स्वयं नेवार्क एअरपोर्ट से गुजर चूका हूँ और हमें भी कुछ कागजी कार्यवाही के लिए एक घंटे इंतजार करना पड़ा था | लेकिन वहां भेदभाव जैसा कुछ नहीं था | हर व्यक्ति से पूछताछ या कागजी कार्यवाही पूरी करने में उन्हें ५-१० मिनट का समय तो लगता ही है और अगर आपके सामने ८-१० लोग हो तो एक घंटे तक इंतजार करना पड़ ही सकता है | पिछले ८ वर्षो की हवाई यात्रा के अनुभव से कह सकता हूँ कि अगर आपका सामान आपका साथ नहीं हो और आपसे सावल न पूछे जाए तो यह बहुत अपवाद वाली बात होगी | मुझे लगता है कि शाहरुख़ से इसीलिए पूछताछ की गयी | १५ - २० घंटे सफ़र करने के बाद एक घंटे एअरपोर्ट पर बैठना बहुत ही कष्टदायक होता है | लेकिन भारत के आम आदमी को इससे बहुत परेशानी नहीं होती क्योंकि उसे तो सरकारी तंत्र के आगे मत्था टेकने और अपना गुस्सा पी जाने की आदत है | भगवान का शुक्र है कि कहीं तो भारत की राजशाही और आम आदमी एक पायदान पर खड़े होते हैं |

भाजपा बनाम आरएसएस

BBC हिंदी पर संजीव श्रीवास्तव का यह ब्लॉग छपा है |

http://www.bbc.co.uk/blogs/hindi/2009/08/post-24.html

इसमें संजीवजी ने काफी हद तक सही लिखा है | वाजपेयी जी के सन्यांस , अडवाणीजी के बड़बोलेपन और राजनाथजी की अयोग्यता ने भाजपा को बहुत नुकसान पहुँचाया है | लेकिन भाजपा की वर्तमान स्तिथि के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को कितना जिम्मेदार ठहराया जा सकता है यह पता करना कठिन है | वर्तमान में अगर कोई भाजपा का नेतृत्व सम्हालने योग्य है तो वह नरेन्द्र मोदी है | चूँकि मोदीजी संघ के प्रचारक रह चुके है इसलिए संघ को उनको नाम पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए | शायद अडवाणीजी या राजनाथजी की महत्वकांशा ही भाजपा अध्यक्ष पद और उसके सही उत्तराधिकारी के बीच आ रही है | अगर २००९ का लोकसभा चुनाव मोदीजी के नेतृत्व में लड़ा जाता तो परिणाम कुछ और भी हो सकता था | भाजपा को पहले एक कुशल नेतृत्व की आवश्यकता है और फिर अपने बुनियादी संगठन को मजबूत करने की तभी उसका उत्थान संभव है |