Thursday, October 29, 2009

आपकी नज़रों में क्या है इंदिरा गांधी की छवि...

http://newsforums.bbc.co.uk/ws/hi/thread.jspa?forumID=10242

इंदिरा गांधी के बारे में विश्लेषण देना हो तो मेरे दिमाग में एक ही विचार आता है - संभावनाएं जो गवां दी गयी ( अपोरच्युनिटीस लोस्ट )


जब इंदिरा गांधी को मारा गया तब मैं बहुत छोटा था इसलिए उनके या उनके कार्यकाल बारे में प्रथम द्रश्तया तो कुछ नहीं कह सकता लेकिन आज की परिस्थिति से भूत का कुछ अंदाजा अवश्य लगा सकता हूँ | अगर हम पीछे मुड कर देखें और यह पता करने का प्रयास करें कि विकास के मार्ग पर हम जहाँ खड़े हैं वहां पहुँचने में हमें इतनी देर क्यों लगी और बाकी देश हमसे आगे क्यों निकल गएँ तो हम पायेंगे कि सही मार्ग चुनने में हमने सबसे ज्यादा भूलें ६० , ७० और ८० के दशकों में की | अगर किसी को मेरी बात पर विशवास नहीं है तो वह youtube पर इस विडियो को देखे ( http://www.youtube.com/watch?v=hVimVzgtD6w ) , इसमें पिछले सौ सालों में विभिन्न देशों में हुए विकास को बहुत ही सुन्दरता से दर्शाया गया है | इसमें साफ़ बताया है कि किस तरह चीन, कोरिया और अन्य एशियाई देशों ने ७० और ८० के दशकों में गियर बदला और विकास की तेज राह पकड़ी और हमें पीछे छोड़ दिया और उसके बाद तो हम बस पिछड़ते ही चले गए |

यह बात सही है कि इंदिरा गांधी ने कुछ कठोर निर्णय लिए जो उनकी नेतृत्व क्षमता को दर्शाते हैं और आज के नपुंसक नेताओं के सामने तो उनका यह एक गुण भी उन्हें काफी बड़ा बना देता है, लेकिन देश के विकास को ध्यान में रखकर जिस दूरदर्शिता का परिचय उन्हें देना था वह उन्होंने कभी नहीं दिया |

जनसंख्याँ और शिक्षा की अनदेखी : १९५९ में क्यूबा की क्रांति के बाद क्रांतिकारियों ने अपने सर्वप्रथम निर्णयों में शिक्षा से जुड़े एक निर्णय को भी सम्मिलित किया | वो निर्णय था शिक्षा को सार्वभौमिक बनाना | उन्होंने इसे केवल निर्णय तक ही सीमित नहीं रखा परन्तु उसे सच बनाने के लिए कदम भी उठाये और कुछ ही वर्षों में क्यूबा में जन जन को शैक्षिक बना दिया गया | भारत में ऐसा क्यों नहीं हुआ | यहाँ तक कि नेहरुकाल के बाद पहला भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT ) १९९४ में बना | यह बात और है कि तब तक भारत की जनसँख्या तीन गुना हो चुकी थी | जनसंख्याँ के नियंत्रण के लिए उस समय उचित कदम उठाये जाते तो आज समस्या उतनी गंभीर नहीं होती | क्या यह सब जानबुझ कर किया गया क्योंकि अनपढ़ और बेबस जनता को हाथ के पंजे पर मोहर लगाने के लिए पटाना आसन था |

परिवारवाद और चाटुकारिता की राजनीति : राजनीति में परिवारवाद का जो बीज नेहरु ने बोया था उसे इंदिरा गांधी ने बड़े परिश्रम से सींचा और आज वह बीज बड़ा पेड़ बन कर क्या फल दे रहा है यह किसी से छुपा नहीं है | भारत में राजशाही फिर से लाने का सबसे अधिक श्रेय अगर किसी को जाता है तो शायद इंदिरा गाँधी ही है | इंदिरा गांधी ने वफादारों की फौज तो बनायी लेकिन उन वफादारों की वफादारी देश के प्रति कितनी थी और कितनी अपनी उन्नति के प्रति यह सोचने का विषय है | अर्जुन सिंह , प्रणव मुख़र्जी , बलराम जाखड, शिवराज पाटिल , नारायण दत्त तिवारी, सलमान खुर्शीद , ए के एंटोनी , वीरप्पा मोईली , माधव राव सिंधिया , राजेश पायलेट , दिग्विजय सिंह , मुरली देवड़ा ऐसे कई नाम है जो पिछले ४० सालों में सत्ता से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं लेकिन जब भी हरित क्रांति, दुग्ध क्रांति, संचार क्रांति, परिवहन क्रांति (जो आई नहीं) , शिक्षा क्रांति (जिसके बारे में सोचा भी नहीं गया) , आर्थिक सुधारों की बात होती है तो इनमें से किसी का भी नाम नहीं लिया जाता | ऐसा क्यों ? और इसी से पता लगता है कि इनमें से कितने अपनी योग्यता से आगे बढे और कितने किसी और कारण से |

बेलगाम नौकरशाही और भ्रष्टाचार : इंदिरा गांधी को जब मारा गया तब में बहुत छोटा था जब थोडा बड़ा हुआ तो अपने नानाजी से राजनीति पर भी चर्चा करने लगा | वे मुझे बताते थे कि किस तरह इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भ्रष्टाचार बढा और उनके सेवा निवृत होने तक एक इमानदार व्यक्ति के लिए सरकारी नौकरी करना दूभर हो गया था | पिछली पीढी के मेरे अधिकतर संबन्धी सरकारी नौकरी में है या थे और उनमे से ज्यादातर इंदिरा गांधी के कार्यकाल के समय नौकरी पर लगे थे | जबकी मेरे ज्यादातर साथी और भाई बन्धु (मुझे मिलाकर) निजी कंपनियों के लिए काम करते हैं | इसका यह अर्थ है कि नौकरशाही का जितना विस्तार इंदिरा गांधी के समय में हुआ उतना किसी और के समय में नहीं हुआ और ना शायद अब होगा | यह कहने के आवश्यकता नहीं कि जितनी कार्यकुशलता और इमानदारी नौकरशाही में होनी चाहिए उतनी है नहीं | अगर नौकरशाही के विस्तार के समय उनमे उचित मूल्यों के निर्माण और कार्यकुशलता बढाने पर ध्यान दिया जाता तो उससे देश के विकास पर क्या प्रभाव पढता उसकी अब केवल कल्पना ही की जा सकती है |

इसलिए आज की पीढी के लिए इंदिरा गांधी वो संभावनाएं हैं जो गवां दी गयी |

Sunday, October 4, 2009

कुछ मेरी कुछ आपकी बात

http://www.bbc.co.uk/blogs/hindi/2009/10/post-34.html

सर्वप्रथम आपको बीबीसी हिंदी के प्रमुख का पदभार ग्रहण करने पर बधाई | मैं आपके इस कथन से पूरी तरह सहमत हूँ कि पत्रकारिका का लक्ष्य लोगों की समस्याओं को उजागर करना है | परन्तु मेरे विचार में उसे वहां पर रुककर अपने कार्य को सम्पन्न नहीं समझना चाहिए वरन समस्याओं का हल निकालने में भी सहायता करनी चाहिए | इसके लिए अगर पत्रकारों को राजनेताओं और अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों से कठिन प्रश्न भी पूछना पड़े तो उससे उन्हें झिझकना नहीं चाहिए | लेकिन यह सब तभी संभव है जब आपको बीबीसी हिंदी की मातृ संस्थान बीबीसी वर्ल्ड सर्विस से भी यही मेंडेट (आज्ञा - पत्र) मिला हो | इसलिए मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि आपको अपने बॉस से क्या मेंडेट मिला है ? क्योंकि आखिर में जो बीबीसी हिंदी चला रहा है उसका हित आपके लिए सर्वोपरि हो जाता है |

फिर भी आपने पूछा है तो मैं कहता हूँ कि मैं कैसी खबरें पढ़ना/सुनना पसंद करूँगा | बीबीसी हिंदी के रूप में आपके पास ऐसा मंच है जिसमें आप व्यवसायिक हितों से बाधित नहीं है | इसलिए मैं चाहूँगा की आप इस स्वतंत्रता का भरपूर फायदा उठायें और ऐसी खबरें को महत्व दें जिनका व्यवयसायिक मूल्य भले कम हो लेकिन जो देश की मूलभूत समस्याओं को उजागर करती हैं और जिनमें थोड़े से सुधार के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं | मिसाल के तौर पर बीबीसी हिंदी ने थोड़े दिनों पहले 'आओ स्कूल चले' के नाम से बहुत अच्छी श्रंखला प्रस्तुत की थी जिसमें कुछ सरकारी स्कूलों की दुर्दशा को बखूबी उजागर किया गया था | भारत का मेनस्ट्रीम (मुख्यधारा) मीडिया ऐसी खबरें कभी नहीं छापेगा | उसे तो शाहरुख़ खान , राखी सावंत और सचिन तेंदुलकर के पीछे भागने से फुर्सत कहाँ है | इसी तरह शिक्षा, पर्यावरण, स्वछता, परिवहन से जुडी समस्याएँ , भ्रष्ट्राचार, सरकारी संसाधनों की बर्बादी से जुडी ख़बरों को अधिक महत्व दें | और जब नेताओं को अपने मंच पर लायें तो उनसे इन समस्याओं के बारें में कठिन सवाल पूछें | उनसे साफ़ साफ़ पूछें कि वे इन समस्याओं के समाधान के लिए क्या कर रहें है | संजीव श्रीवास्तव नेताओं को अपने मंच पर लातें तो हैं लेकिन उनसे बहुत ही आसान सवाल पूछ कर छोड़ देते हैं :) | व्यावसायिक मीडिया ऐसा करे तो समझ में आता हैं क्योंकि वे पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं करना चाहते पर आपको तो वो डर भी नहीं है | मुझे बहुत खुशी होगी अगर आप कपिल सिब्बल को अपने मंच पर बुलाएं और उन्हें 'आओ स्कूल चलें' की वो टेप्स सुनाएँ और उनसे पूछें कि वे बिहार और मध्य प्रदेश के उन सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने के लिए क्या कर रहें है | और मैं चाहूँगा कि आप इन समस्याओं पर काम कर रही गैर सरकारी संस्थाओं को और उनके अच्छे कार्यों को समय समय पर अपनी ख़बरों में जगह दें | इससे लोग उनके बारें में जानेगे और हो सकता है उनकी मदद में आगे भी आयें | लेकिन इससे भी ज्यादा जरुरी यह हैं कि आने वाली पीढ़ी शाहरुख़ खान, ऐश्वर्या राय के साथ साथ प्रकाश आमटे, दीप जोशी, डॉक्टर चन्द्रा, संदीप पांडे को भी आपना आदर्श बनाये | मैं नहीं जानता कि यह सब करने से बीबीसी वर्ल्ड सर्विस और उसके मालिकों को क्या लाभ होगा लेकिन इतना कहूँगा कि अच्छे कर्मों का फल एक दिन अवश्य मिलता है |

मेरी यही कामना है कि इश्वर आपको आपके नए काम में भरपूर सफलता प्रदान करे और आपको बीबीसी हिंदी के माध्यम से उस परिवर्तन का अग्रदूत बनाये जिसकी इस देश को सख्त आवश्यकता है |

Friday, October 2, 2009

चीनी वीजा़ पर विवाद

http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2009/10/091001_visa_china_kas_skj.shtml

इसमें तो कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि चीन ने ऐसा क्यों किया है | चीन हमेशा से भारत को खतरे के रूप में देखता रहा है और इसलिए भारत को कमजोर करने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है | पाकिस्तान को दी जाने वाली आर्थिक, सैन्य एवं राजनयिक सहायता इस नीति का अहम् हिस्सा है | यह नया खेल राजनयिक सहायता का हिस्सा है |

यह बातें तो शायद सभी जानते हैं तो फिर मुझे लेख लिखने की क्या आवश्यकता है | पर इस विषय पर दो बातें लिखना चाहता हूँ | पहली बात : हमारी सरकार की प्रतिक्रिया पढ़कर हंसी आती है | बीबीसी हिंदी के लेख से "भारतीय विदेश मंत्रालय ने भी इस पर बयान जारी किया है. उनका कहना है कि भारतीय नागरिकों के ख़िलाफ़ मूल निवास और नस्ल के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए और हमने अपनी चिंताओं से चीनी सरकार को आगाह कर दिया है." | अब आप ही बताईये जो व्यक्ति आपको नुकसान पहुंचाने के लिए हर साल अरबों डॉलर खर्च करता हो , हर दिन नए नए तरीके ढूंढ़ता हो उसको अपनी "चिंता से आगाह" करने से कोई फायदा है | भारत को भी शिनजियांग , होंग कोंग , गुआंग दोंग , फुजिआन के रहने वालों को अलग कागज़ पर वीसा जारी करने पर विचार करना चाहिए | कम से कम चीन को इस विषय पर धमकी दे कर यह अहसास दिलाने का प्रयास तो करना ही चाहिए कि अगर उनके साथ भी यही खेल खेला जाए तो उनको कैसा लगेगा | लेकिन हमारी राजशाही को देश की इतना चिंता होती तो देश में बहुत सी बातें अलग होती | पता नहीं यह दौर मुझे उस दौर जैसा क्यों लगता है जब ब्रिटिश धीरे धीरे एक एक प्रान्त/रियासत पर कब्जा करते चले गए और भोग विलास में डूबी उस समय की राजशाही को पता भी न लगा |

दूसरी बात : "लेकिन हर कश्मीरी एजाज़ की तरह किस्मत वाला नहीं है |" बीबीसी के प्रत्रकार द्वारा लिखा हुआ यह वाक्य परेशान करने वाला है | क्या बीबीसी के पत्रकार को इतनी भी समझ नहीं कि यह चीन का अपने स्वार्थसिद्धि के लिए एक खेल है और इस खेल में कश्मीर के लोगों का केवल इस्तेमाल किया जा रहा है | यह सही है कि कुछ कश्मीरियों को चीन के इस खेल से परेशानी का सामना करना पड़ रहा है लेकिन क्या उन्हें पता नहीं कि इसका विरोध नहीं किया गया तो भारत के लिए कितने गंभीर परिणाम हो सकते हैं | क्या उन्हें भारत से इतना भी लगाव नहीं कि वह कुछ लोगों की निजी परेशानियों से सहानुभूति जताने के साथ साथ भारत के हो रहे अहित को देखें और उसके बारें में भी लिखे , कम से कम उन यात्रियों को रोक कर भारत द्वारा किये जा रहे मामूली विरोध को गलत तो न बताएं | अगर भारत से उन्हें कोई लगाव नहीं तो क्यों वे भारतीयों की भाषा में लिख रहें हैं ? क्या बीबीसी हिंदी भी ब्रिटिश सरकार के किसी छुपे हुए राजनयिक एजेंडा का हिस्सा है जिसमें उसका लक्ष्य भारतीयों के मतभेदों को उभार कर उनमें फूट डालना है ? क्या बीबीसी हिंदी ब्रिटिश सरकार की 'फूट डालो और राज करो' की नीति का नया स्वरुप है ? क्या बीबीसी के पत्रकार जलियांवाला वाला बाग़ में गोली चलाने वाले उन भारतीय सिपाहियों के सामान है जिन्होंने एक अंग्रेज के कहने पर अपने ही लोगों पर गोलियाँ चलायीं ? मुझे यही आशा है (और इश्वर से प्रार्थना है ) कि यह सब बातें गलत निकले | लेकिन अगर सही निकलती है तो मुझे आश्चर्य भी न होगा |